बात 1991 की है। मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय का छात्र था। स्नातक पूरा हो चुका था और एमए में एडमिशन ले चुका था। उस समय अखबारों की खबरें तथा उनके सम्पादकीय पेजों पर छपने वाले आर्टिकल देश की जर्जर अर्थव्यवस्था को कोसते रहते थे। विश्वविद्यालय के हास्टल से लेकर डेलीगेसी में रहने वाले विद्यार्थियों के बीच चर्चा का मुख्य विषय भी यही रहता था कि आगे देश की अर्थव्यवस्था कैसे चलेगी? आज जो आर्थिक स्थिति पाकिस्तान की है मोटे तौर पर तब यही स्थिति भारत की भी थी।
देश की अर्थ व्यवस्था चरमरा चुकी थी। तब तक हम बंद अर्थव्यवस्था वाले देश थे। दुनिया के अन्य देशों से सामान मंगाने के लिए हमारे पास पैसा नहीं था। देश के पास मात्र कुछ दिनों के लिए ही विदेशी मुद्रा भंडार बचा था। हमारे देश में तेल का कभी भी पर्याप्त उत्पादन नहीं होता था। यह बदहाली मोटे तौर पर तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी के समय से पहले से ही शुरू हो चुकी थी। बाद में नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री और मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने तो आर्थिक सुधारों की दिशा में बड़ा काम होने लगा। उसी समय इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार मणिशंकर अय्यर ने खबर ब्रेक की कि देश ने मात्र 40 करोड़ डालर के एवज में 47 हजार किलो यानी 47 टन सोना गिरवी रख दिया। देश को इस फैसले की जानकारी नहीं दी गई। इस बात की जानकारी होने से हर भारतीय को दुखी था। भारतीयों के लिए यह बहुत ही भावुक क्षण था। ऐसा करना मजबूरी थी क्योंकि तब 20 दिनों का आयात बिल चुकाने भर की विदेशी मुद्रा रह गई थी। सोना ही तत्कालीन स्थितियों में खेवनहार नजर आया। मात्र 40 करोड़ डालर के लिए 47 हजार किलो यानी 47 टन सोना गिरवी रख गया था।
ऐसी स्थिति क्यों आई थी:
दरअसल अंग्रेजों से आज़ाद होने के बाद हमारा मन-मस्तिष्क ऐसा था कि अंग्रेजों ने हमारे यहां शासन इसलिए किया क्योंकि वह यहां पर अपनी एक कंपनी लेकर आए थे। हमने विदेशी कंपनियों को आगे बढ़ने दिया। इसलिए हम गुलाम हो गये। इसलिए हम किसी विदेशी कंपनी को अपने देश में नहीं आने देना चाह रहे थे। हमें लगता था कि कोई विदेशी कंपनी आएगी तो हमें ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह लूट कर ही जाएगी। इसलिए हमने देश को एक बंद अर्थ व्यवस्था बना दिया। सोच लिया कि किसी विदेशी कंपनी को नहीं आने देंगे। दूसरे देशों के साथ व्यापार नहीं करेंगे। अपने से जो पैदा करेंगे, वही खाएंगे। जो हमारे पास रिजर्व है उससे सारा काम करेंगे। लेकिन खुद पैदा करने और खुद उपयोग करने मात्र से काम चलने वाला नहीं था। जब हम दूसरे देशों से सामान खरीदते थे तो उसकी कीमत का भुगतान करना मजबूरी थी। भुगतान के लिए हम अपना रुपए देना चाहते थे लेकिन जिनसे हम सामान लेते वह हमारे रुपए को महत्व ही नहीं दे रहे थे। वह सिर्फ अमेरिका के डालर में ही लेन-देन करना चाहते थे। क्योंकि दुनिया की अर्थव्यवस्था में तो सिर्फ अमेरिकी का ही सिक्का चलता था।
कुछ भी खरीदने के लिए डालर का होना जरूरी:
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से डालर अमेरिका की आर्थिक हैसियत को दर्शाता था कि डालर दोगे तो सोना ले जाओगे। दुनिया के देश कहते थे कि हम तो डालर में ही व्यापार करेंगे। कम से कम डालर के बदले सोना तो मिल जाएगा। हमारे पास मजबूरी थी कि हमारे पास थोड़ा बहुत ही सोना रिजर्व में था। विदेशी मुद्रा के लिए हम दूसरे देशों के साथ व्यापार नहीं कर रहे थे लेकिन खरीदने के लिए हमें पैसे चाहिए थे। इसलिए हम खरीदते तो चले गए, जिससे इससे हमारा बिल तो बढ़ता चला गया लेकिन भुगतान करने के लिए हमारे पास डालर नहीं था। इससे हमारा इम्पोर्ट तो बढ़ता गया लेकिन एक्सपोर्ट कम होता गया।
हरित क्रांति नहीं आती तो भूखे मरने की स्थिति:
एक्सपोर्ट कम होने की सबसे बडी वजह जब हम आजाद हुए थे तब एक उन्नत अर्थव्यवस्था वाले देश नहीं थे। पिछड़े और अल्प विकसित राष्ट्र के रूप में हमारी गिनती होती थी। खेती ही हमारी मुख्य जरूरत थी और हम उसे ही आगे बढ़ा रहे थे। हमारी 95 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती थी। इसलिए तब हम सिर्फ पैदा करके अनाज खाने वाली स्थिति में थे। इतना ही नहीं बीच में हरित क्रांति नहीं आई होती तो कितने लोग भूखे मर जाते क्योंकि तब की जनसंख्या के हिसाब से हम एक वक्त का ही भोजन पैदा कर पा रहे थे। हरित क्रांति से हम भूख की लड़ाई से तो विजय पा चुके थे लेकिन पैसे की लड़ाई लड़ना अभी भी बाकी था। क्योंकि बाहर से कुछ भी लेन-देन करने के लिए पैसे चाहिए थे। जब भी हम बाहर से कुछ खरीदते हमें उसका भुगतान करना ही पड़ता।
डरते हुए कंपनियों को आने की थोड़ी छूट दी:
उस समय अर्थ व्यवस्था किसी तरह से चल रही थी। सरकार थोड़ा बहुत अर्थ व्यवस्था खोलने के लिए ढील दे रही थी। हमें समझ में आ चुका था कि दूसरे देशों के साथ व्यापार नहीं करेंगे तो खरीदे गए सामान की कीमत देने के लिए डालर की व्यवस्था नहीं कर पाएंगे। डालर तब तक नहीं आएगा जब तक हम कुछ बेचेंगे नहीं। दूसरी तरफ जब हम किसी देश को कुछ सामान बेचने की कोशिश करते तो वह देश कहता है कि हम आपसे क्यों लें? किसी और देश से क्यों न ले लें? हम कहते कि हमारे यहां यह चीज पैदा होती है तो उनका कहना रहता कि पहले हमारी कंपनी को अपने देश में आने तो दोगे तभी हम तुम्हारा माल खरीदेंगे। व्यापार में ऐसी तमाम रुकावटें आने लगीं। मजबूरन सरकार ने कंपनियों को आने के लिए डरते हुए थोड़ी बहुत छूट दी। सरकार ने कहा कि कोई कंपनी हमारे यहां आना चाहती है तो आ जाए लेकिन हम उस पर पूरी तरह से नियंत्रण रखेंगे। देखेंगे कि कंपनी का हमारे देश में गलत इरादा तो नहीं है। इसकी जांच पड़ताल करने के बाद ही उसे काम करने के लिए लाइसेंस देंगे।
इसलिए बढ़ने लगी रिश्वतखोरी:
आजादी के बाद दूसरे देश की कंपनियों को व्यापार करने का लाइसेंस देने की जो व्यवस्था बनी उसे ही लाइसेंस राज कहा गया। इस लाइसेंस को पाने के लिए क्लर्कों से तमाम फाइलें पास करानी होतीं, इसलिए क्लर्कों के पास लंबी कतारें लगी रहतीं थीं। यह फ़ाइलें लाल रंग की होती थीं और अधिकारी भी लाल बत्ती में घूमा करते थे। इसलिए इसे लालफीता शाही या रेड कैपिटलिज्म कहा जाने लगा। इसका मतलब इंडिया में आपको लाइसेंस चाहिए तो बाबू के पास जाना पड़ेगा। यह बड़ा बाबू हो सकता है या छोटा बाबू। या अधिकारी भी हो सकते है। यह सभी सरकार का हिस्सा थे। यह ही सरकार से फाइलें पास करवाते थे। इसलिए इसका वह रिश्वत भी लेने लगे। इसलिए लाइसेंस के चक्कर में लाल फीताशाही के साथ ही भ्रष्टाचार भी फलने-फूलने लगा। लालफीताशाही के चलते सरकार से लाइसेंस लेने में लंबा समय लग रहा था। लाल फीताशाही और भ्रष्टाचार से देश की स्थिति बिगड़ती चली गई। स्थिति इतनी बिगड़ गई कि दूसरे देश की कंपनियों को बुलाने पर उनका भ्रष्टाचार में उनका इतना ज्यादा खर्च हो जाता था कि जितना वह कमाई भी नहीं कर पाते थे।
इराक पर हमले से बढ़े तेल के दाम:
यह सब चल ही रहा था कि 1990 के बाद स्थितियां और बिगड़ गईं। हम जो तेल बाहर से मंगा रहे थे उसके दाम बढ़ गए क्योंकि खाड़ी देशों में युद्ध छिड़ गया। ईराक ने अपने पड़ोसी देशों पर हमला कर दिया। इससे अमेरिका इराक के विरोध में आ गया। उसने इराक को अपना दुश्मन घोषित कर दिया जबकि इराक भारत का मित्र था। हम ज्यादातर अपना तेल इराक से ही मंगाते थे। उस समय ट्रकों पर लिखा हुआ आपने पढ़ा होगा ‘इराक का पानी पी मेरी रानी’। यह इस बात को समझने के लिए पर्याप्त है कि भारत और इराक के रिश्ते कितने गहरे थे। युद्ध के चलते इराक और भारत में दूरियां बढ़ने लगीं क्योंकि इराक पर हमले की तैयारी चल रही थी। भारत अमेरिका से बात कर रहा था कि हमें तेल चाहिए। दुनिया में युद्ध का संकट था। इससे तेल की कीमतें बढ़ने लगीं। क्योंकि युद्ध होगा तो उस खाड़ी में कौन जाएगा। तेल नहीं मिलेगा तो देश कैसे चल पाएगा। कल-कारखाने ठप हो जाएंगे। पहले से ही हमारे पास डालर नहीं थे। उसके बाद तेल भी महंगा मिलेगा।
डालर के बदले मानी अमेरिका की शर्त:
एक तो डालर नहीं, ऊपर से जो तेल मिलेगा वह और भी महंगा तो हम दूसरे देशों से खरीदें जाने वाले सामान के लिए डालर कैसे चुकाएंगे? हमारे पास पेमेंट का संकट उत्पन्न हो गया। हमने भुगतान करने के लिए अमेरिका से कुछ डालर मांगा लेकिन अमेरिका ने मौके का फायदा उठाया। उसने डालर देने की हामी भरी, साथ ही शर्त लगा दी कि वह इराक पर हमला करने के लिए भारत की धरती पर अपने फाइटर जेट उतारेगा। उसने कहा कि हमारे फाइटर जेट इतनी दूर से यात्रा कर आ नहीं सकते। आपकी धरती पर उतरकर हम वहां हमला करने जा सकेंगे। अमेरिका ने इस तरह से कई बार हमारे साथ मौके का फायदा उठाया। उसके बदले उसने हमें डालर दिए, लेकिन यह डालर बहुत कम थे और कुछ ही दिन चल पाए।
पैसे के लिए अमेरिकी कंपनियों को भारत आने की अनुमति दी:
हमें अभी और पैसे की जरूरत थी। पैसे के नाम पर दुनिया में दो बड़ी बैंक हुआ करतीं थीं। एक थी इंटरनेशनल मोनेटरी फंड (आईएमएफ) और दूसरी वर्ल्ड बैंक। यह दोनों ही बैंक दुनिया में क़र्ज़ बांटतीं हैं लेकिन इन दोनों पर अमेरिका का ही दबदबा है। जब कोई देश पेमेंट क्राइसिस (भुगतान अंसतुलन) से गुजरता है अर्थात इम्पोर्ट ज्यादा और एक्सपोर्ट कम हो जाता है तब आईएमएफ कहता है कि मैं आपको डालर तो दूंगा लेकिन आपको मेरे कहे के अनुसार अपने यहां सुधार करना होगा। हमारी कंपनियों को अपने देश में आने की परमीशन देनी होगी। फिलहाल आज जो पाकिस्तान में स्थिति है, उस स्थिति से भारत 1991 में ही गुजर चुका है। आज पाकिस्तान अपनी सरकारी कंपनियों को बेच रहा क्योंकि खरीदने वाले विदेशी होंगे। क्योंकि उन्हें डालर मिलेंगे।
मजबूरी में सोना गिरवी रखा:
1991 में अमेरिका ने हमसे बड़ी दृढ़ता से कहा था कि डालर लोगे तो हमारे लिए नियम खोलने होंगे। हम मजबूर थे। हमने कहा कि डालर के बिना हमारा काम नहीं चल रहा है। आईएमएफ (इस बैंक में अमेरिका का एक तिहाई पैसा लगा है) ने हमें वन बिलियन और कुछ अमेरिकी डालर देकर कहा कि लीजिए और अपने लोन चुकाइये। लेकिन खाड़ी देशों में युद्ध के कारण तेल के दाम एकाएक बहुत बढ़ चुके थे। हमारा आयात बिल बढ़ता जा रहा था। सरकार की ग़रीबी सबके सामने आ गई थी।
सोना गिरवी रखने से मायूस हुए भारतवासी:
हमारा अंतर्मन आईएमएफ के हिसाब से बदलावों के पक्ष में नहीं था क्योंकि अब तक हम दुनिया से कहते आ रहे थे कि हम अपने देश में दूसरी कंपनियों को आने नहीं देंगे लेकिन अगर हम अपनी अर्थव्यवस्था औरों के लिए नहीं खोलते हैं तो पैसे का संकट खड़ा हो जाएगा। ऐसे में एक रास्ता निकला, वह था सोने का रास्ता। आरबीआई की अपनी तिजोरी में सोना था। जिस तरह से हम आम भारतीयों की स्थिति चरमराने लगती है तो अक्सर महिलाएं सोने को गिरवी रख देती है और बदले में पैसे लेकर घर का काम चलाती हैं। उस समय आरबीआई ने भी लगभग ऐसा ही किया। आरबीआई ने सोना दूसरे देश में गिरवी रख दिया। उसके बदले में पैसा लिया। जैसे महिलाओं के लिए सोना उनकी शान का प्रतीक होता है, वैसे देश के लिए सोना उसकी इज्जत थी। कभी घर का सोना गिरवी रखा जाता है तो उस घर वाले बहुत मायूस हो जाते हैं। ऐसे ही जब देश का सोना गिरवी रखा गया तो हम भारतवासी बहुत दुखी थे।
इंडियन एक्सप्रेस से लीक हुआ मामला:
यह 1991 था, जब हमें चोरी छिपे अपने इस सोने को बैंक आफ इंग्लैंड और बैंक ऑफ जापान में गिरवी रखने वाले थे। वहां सोना रखकर डालर लेकर आना था। हमने अपना 40 से 45 टन सोना उन्हें दिया और उसके बदले 400 बिलियन डॉलर लेकर चले आए। यह काम बहुत चोरी-छिपे किया जा रहा था। किसी को बताया नहीं गया था। लेकिन इंडियन एक्सप्रेस ने मामले को लीक कर दिया। उसने दिखा दिया कि भारत अपना सोना चोरी-छिपे दूसरे देश में रखने को मजबूर हुआ। इससे भारतीयों का आत्मसम्मान बहुत गिरा। लोगों ने महसूस किया कि आज ऐसी क्या स्थिति है कि जिसके लिए हम इतने परेशान हुए कि सोना तक गिरवी रखना पड़ा।
खुली अर्थव्यवस्था की राह पर चल पड़ा भारत:
तब देश की बागडोर कद्दावर कांग्रेसी नेता पीवी नरसिम्हा राव के हाथ में थी। उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के आर्थिक सलाहकार रहे मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाया था। तब मनमोहन सिंह ने कहा था कि हमें लाइसेंस राज की नीति से बाहर निकलना होगा। 24 जुलाई 1991 की शाम पांच बजे संसद का बजट सत्र चल रहा था। मनमोहन सिंह ने साहसिक आर्थिक सुधारों की श्रृंखला पेश की। उन्होंने अब तक के समाजवादी माडल से दूर देश की अर्थव्यवस्था को खुले बाजार के हवाले कर दिया। यहां पर यह बताना जरूरी है कि क्लोज्ड इकोनॉमी ऐसी अर्थव्यवस्था है जो बाहर की अर्थव्यवस्थाओं से किसी तरह का लेन-देन नहीं करती।
देश ने अपनाई एलपीजी की नीति:
मनमोहन सिंह ने कहा कि हमें अपनी अर्थव्यवस्था को खोलकर काम करना होगा। हमें लिबरलाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन और प्राइवेटाइजेशन जिसे हम उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण कहा जाता है, की व्यवस्था को अपनाना होगा। इसे ही शार्ट में एलपीजी कहते हैं। उन्होंने कहा कि यदि हम यह व्यवस्था नहीं अपनाएंगे तो डालर खुद से चलकर मेरे भारत में नहीं आएंगे। डालर नहीं आएंगे तो हम दूसरे देशों को भुगतान कैसे करेंगे। जब भुगतान नहीं कर पाएंगे तो फेलियर इकोनॉमी बन जाएंगे। उस समय मनमोहन सिंह वित्त मंत्री हुआ करते थे। आईएमएफ का बढ़ता दबाव तथा देश की स्थिति ने हमें उस जगह लाकर खड़ा कर दिया था कि हम यह निर्णय लेने के लिए मजबूर हुए कि हमें लिबरलाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन और प्राइवेटाइजेशन तो करना ही है।
मनमोहन सिंह के कहने पर नरसिम्हा राव ने नियम बदलने की छूट दी:
यह बात तात्कालिक वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के सामने रखी तो उन्होंने कहा कि नियम बदल दो। 1947 से 1991 तक भारत बंद अर्थव्यवस्था वाला देश था। हम अपने देश में किसी भी कंपनी को आने देने के लिए तैयार नहीं थे। अचानक से इस निर्णय के चलते हमने देश की अर्थव्यवस्था को खोल दिया। खोलने के बाद से हम हर दिन उसके दायरे बढ़ाते गये।
आज भारत के पास मजबूत सोने का भंडार:
इसके चलते आज स्थितियां बदल चुकी हैं। तब हमने जो सोना गिरवी रखा था वह सोना वापस आ चुका है। 31 मार्च 2024 की रिपोर्ट के अनुसार आज के समय में हमारे पास 822 मिट्रिक टन सोना आरबीआई के पास है। इसमें से 514 टन सोना हमने बाहर सुरक्षित रखा है। मतलब 400 से 500 मिट्रिक टन के बीच सोना हमने भारत से बाहर रखा है।
जो सोना लाए वह गिरवी नहीं था:
सबसे बड़ा सवाल यह है कि सोना हमारे पास है और हमने दूसरे देश में रख रखा है तो क्या यह अभी भी गिरवी है? इसका उत्तर है नहीं। हमने अपना सोना इन बैंकों में जमा करके रखा है। फिर दूसरा प्रश्न उठता है-कहां रखा? इसका उत्तर है दुनिया की बैंकों में। इसमें भी सबसे बड़ी बैंक – बैंक ऑफ इंग्लैंड है। हम उस अपने जमा सोना में से सौ टन सोना वापस लेकर आए हैं। गिरवी सोना तो हम पहले ही लेकर आ गये थे। हम जो अपना सोना बैंक में जमा कराकर रखें थे उसमें से सौ टन सोना लेकर आए हैं।
तो क्यों बाहर रखा था सोना:
तीसरा सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि हम वहां पर अपना सोना क्यों रखे थे, तो इसका उत्तर है जब भी भारत का किसी देश से बैलेंस आफ पेमेंट का क्राइसिस हो तो हमारे पास एक न्यूट्रल देश होना चाहिए जिसके साथ हम सोने की लेनदेन कर सकें। दूसरा इस समय भारत के पास 822 टन सोना है। भारत का फारेक्स रिजर्व इसी सोने से मापा जाता है। साथ ही आईएमएफ के अंदर जो हमारा मुद्रा भंडार है उससे भी मापा जाता है जिसे हम एसडीआर (स्पेशल ड्राइंग राइट) कहते हैं। जिसमें पांच देशों की करंसी को काउंट किया जाता है। उसमें देखा जाता है कि आपके पास डालर कितना है?, पाउंड कितना है?, यूरो कितना है?, युआन और जापानी येन कितना है? यह पांच देशों की करंसी को ही हम एसडीआर कहते हैं। यह धन कितना है और गोल्ड कितना है उसके आधार पर ही ही निश्चित होता है कि फारेक्स रिजर्व कितना है। इस फारेक्स में से रुपए तो अपने देश में रख लेते हैं। क्योंकि यूरो, डालर तो कोई सब्जी वाला, ढेले वाला लेगा नहीं। इसलिए इसे हम अपने देश में रख लेते हैं लेकिन सुरक्षा के लिहाज से हम अपना गोल्ड दूसरे देश में सुरक्षित रखते हैं। हमें डर है कि हमारे पास रहेगा तो चोरी नहीं हो जाए। यह तो बेइज्जती की बात है।
इस स्थिति में लिया गया था निर्णय:
प्रश्न यह है कि तब सोना चोरी कौन करेगा? जब देश के अंदर अस्थिरता का माहौल हो, देश के अंदर हर साल कोई प्रधानमंत्री बदल रहा हो, राजनीतिक उठा-पटक हो, सैन्य तख्तापलट की आशंका हो, ऐसी स्थिति में सरकारें अपने देश का सोना अपने देश से पहले ही उठाकर दूसरे देश में रख देती हैं। पता नहीं कि उस समय कौन सनकी प्रधानमंत्री बन जाए, कौन राष्ट्राध्यक्ष, सेना अध्यक्ष बनकर बैठ जाए, किसी आतंकी का शासन हो जाए, पता चले कि वह सारा सोना निकाल कर वह अपने काम में लगा ले। इससे अच्छा है कि दूसरे देश में रख दिया जाए, ताकि दुनिया को पता चले कि सोना चला गया। इसलिए दुनिया में जो भी अल्प विकसित या विकासशील देश हैं, वह डर के मारे अपना सोना दूसरे देश में सुरक्षित रख देते हैं।
कभी देश पर कब्जा किया था, आज भी मनोवैज्ञानिक रूप से राज कर रहा इंग्लैंड:
इंग्लैंड ने दुनिया पर राज किया है। वह आज भी मनोवैज्ञानिक रूप से हमारे ऊपर राज करता है। उसी के पास जाकर हमने अपना सोना सुरक्षित रख दिया। हमें लगता था कि इतना सोना बचाने की क्षमता हमारे पास नहीं है। हमने कहा कि कृपया हमारे सोने को बचा लीजिए। हम सोना वहां की बैंक में रख आए। बैंक ऑफ इंग्लैंड के अंदर नौ बहुत बड़े-बड़े अंडर ग्राउंड में सोना रखा गया है। दुनिया भर के देशों ने सुरक्षित रखने के उद्देश्य से उसी में अपना सोना रखा है। कोई भी देश अपना सोना वहां से निकालता नहीं है।
सोना और डालर का लेन-देन कैसे मैनेज होता है:
कभी डालर की कमी पड़ रही है। धन नहीं होने की स्थिति में हम बैंक ऑफ इंग्लैंड के पास जाते रहते हैं। उसने अकाउंट में मैनेज किया हुआ है कि ए देश के पास डालर कम पड़ रहे हैं और उसके पास गोल्ड है तो बी देश से उसे डालर चाहिए तो अकाउंट से ही उसके अकाउंट में ट्रांसफर कर देता है। अब आपके नाम का गोल्ड दूसरे के नाम पर चढ़ा दिया जाता है। ए नाम का गोल्ड बी के नाम पर चढ़ा दो और बी के डालर ए पर चढ़ा दो। अर्थात माल रखकर करेंसी का आदान-प्रदान कर लिया जाता है। एक तरह से वह मंडी के रूप में काम करने लगता है। जैसे अनाज की मंडी जाइए तो वहां पर अनाज के ढेर लगे होते हैं। तो वह बिकते कैसे हैं? बोली जीतकर कोई आकर कहता है कि यह अनाज की ढेरी मेरी हो गई है। उसके बाद कोई और आया पूछा यह कितने की है तो पता चलता है कि उसकी बोली लग चुकी है और वह वहीं पड़ी रहती है।
आएगा तो कहां रखा जाएगा:
इसके बाद प्रश्न उठता है कि हमारे देश में स्थिरता है। हमारा सोना हमारे देश में आना चाहिए, यह सही भी है लेकिन आ गया तो रखा कहां जाएगा? क्या हमारे देश में सोना बिल्कुल नहीं रखा हुआ है। तो इसका उत्तर है कि रखा हुआ है। मिंटो रोड स्थित रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के मुम्बई हेड क्वार्टर पर हमारा गोल्ड रखा हुआ है। साथ ही साथ नागपुर में भी हम अपना सोना रखते हैं। यह सोना जो आएगा, उसे भी इसी तरह से सुरक्षित रखा जाएगा।
हमारे पास कितना सोना है, दुनिया के देशों के पास कितना सोना है:
इस समय हमारे पास 822 टन सोना है। पिछले पांच सालों में लगभग दो सौ टन सोना हमने खरीदा है। 203.9 टन सोने का भंडार पिछले पांच साल में बढ़ा है। भारत ने ढेर सारा सोना खरीद लिया है क्योंकि दुनिया में सोना ही चलता है, ताकि भविष्य में कभी काम आए। पिछले पांच सालों में हमने जो सोना खरीद लिया है, उसे बाहर की बैंकों में रखा है। उसे वहां से यहां लाया जा रहा है।
दुनिया में सबसे ज्यादा गोल्ड कहां है:
दुनिया में सबसे ज्यादा सोना अमेरिका में है। रिजर्व बैंक ऑफ अमेरिका को फेडरल बैंक कहते हैं और बैंक ऑफ इंग्लैंड के पास भी है। यह दोनों बैंक दुनिया का अधिकतम सोना अपने पास सुरक्षित रखते हैं। फेडरल बैंक ऑफ अमेरिका जिसमें उसका अपना सोना भी है, उसके पास 8133 टन सोना है। वह से लगभग 10 गुना ज्यादा सोना रखकर बैठा हुआ है। इसके बाद जर्मनी, इटली, फ्रांस, रूस, चीन, इस प्रकार से है।
टाप 10 देशों से ज्यादा सोना पहनती हैं भारतीय महिलाएं:
प्रश्न यह है कि जब यह लोग इतना सोना रखकर बैठे हैं तब भारत किस बात की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था है। उसके बाद तीसरे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का सपना देखा जा रहा है। यहां यह जानना जरूरी है कि इनके पास जो सोना रखा है, इनके बैंकों में रखा है। वहीं आपको जानकर आश्चर्य होगा कि टाप पांच देशों या टाप 10 देशों को भी मिला देंगे तो भी उससे ज्यादा भारत की महिलाएं सोना पहनती हैं या तिजोरी में रखतीं हैं। यह 822 टन सोना जो दिख रहा है, वह हमारी बैंकों में है, लेकिन जो हमारा सोना हमारे घरों का है जिसे हम अपना नहीं मानते जिसे हेरिटेज टैक्स के रूप में आगे देना है। वह सोना 21 हजार से लेकर 22 हजार टन अनुमानित है। जिसे हमारी महिलाएं पहनती हैं या तिजोरी में में रखतीं हैं। दुनिया के देश एक तरफ और भारत की महिलाएं एक तरफ। परचेसिंग पावर पैरिटी के आधार पर भारत दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था है। जितना सोना इटली रखकर बैठा है, उतना सोना हमारे मंदिरों के अंदर दान होकर जमा है। मतलब भारत सरकार के पास जितना सोना है उसका तीन गुना मंदिरों में जमा है। बैंक आफ इंग्लैंड के पास चार लाख बार सोना रखा हुआ है।
अब ला क्यों रहे हैं:
इसके पीछे एक गड़बड़ हुई है। रूस-युक्रेन युद्ध शुरू होने पर इन देशों ने रूस को सबसे बड़ा झटका दिया। वह अपने बैंकों में जमा रूस का सोना और डालर फ्रीज कर बैठ गये। रूस पर प्रतिबंध लगाने के नाम पर इन देशों ने लगभग 280 बिलियन डॉलर का जो सोना था, उसके एसेट्स को जमा कर लिया। पूरी दुनिया में रूस का सोना-पैसा अचानक गबन कर लिया गया। यह चाहते थे रूस युद्ध न करे। रूस नहीं माना तो दंडित करने के लिए अचानक ऐसा कर दिया। भारत भी इतना सोना रखकर बैठा है। कल भारत भी इनके खिलाफ नाफरमानी कर दे तो वह सैंक्सन लगाने लगेंगे और हमारा इतना सारा पैसा बर्बाद हो जाएगा। यह इतने चालाक लोग हैं कि रूस का पैसा जमा कर लिए और उस पैसे को यूक्रेन को दे रहे हैं कि तुम इससे अपना देश तैयार करो। कल भारत किसी पर चढ़ाई कर दे। पीओके लेने के लिए लड़ाई शुरू हो जाए और यह लोग कहने लगें कि पाकिस्तान के लोग तो वैसे ही मरे जा रहे हैं। इंडिया को सही कर दो। इसलिए रक्षा के लिहाज भारत अपना सोना वापस ला रहा है।