डालर की बढ़ती कीमतों से हर देश की अर्थव्यवस्था परेशान है। स्थिति यह है कि डालर की बढ़ती कीमतें सरकारें गिराने की हैसियत में हैं। डालर के इस एकछत्र राज्य से हर देशों में निकलने की छटपटाहट है। इसका नतीजा है कि भारत अपने पड़ोसी देशों के साथ ही रूस सहित 29 के करीब देशों से अपनी मुद्रा रुपये में व्यापार करने का समझौता कर चुका है जबकि चीन तो भारत से भी ज्यादा देशों से अपनी मुद्रा युआन में लेन-देन कर रहा है। अब इसी कड़ी में नौ जून को सऊदी अरब ने अमेरिका के साथ 1973 में हुआ पेट्रो डालर समझौता रद्द कर दिया है। इसके साथ ही यह माना जाने लगा है कि धीरे-धीरे डालर की बादशाहत बीते जमाने की बात हो जाएगी।
आज हम इसी पेट्रो डालर समझौते पर ही चर्चा करेंगे। इसे हम इस तरह से भी समझ सकते हैं कि अगर कोई देश खाड़ी देशों से पेट्रोलियम पदार्थ खरीदेगा तो उसका भुगतान उसे केवल डालर में ही करना होगा। इस व्यवस्था को ही पेट्रो डालर कहा जाता है। पेट्रोलियम पदार्थों का पेमेंट डालर में करने की व्यवस्था ही पेट्रो डालर समझौता है। उदाहरण के तौर पर भारत और सऊदी अरब को ले लिया जाए। न तो भारत की और न ही सऊदी अरब की ही मुद्रा डालर है लेकिन जब भारत, सऊदी अरब से पेट्रोलियम पदार्थ खरीदता है तो उसे भुगतान डालर में ही करना पड़ता है।
यह डालर अमेरिका की कूटनीति का अहम हिस्सा है। उसने दुनिया के देशों से कई ऐसे अहम समझौते किए हैं कि यदि उन्हें पैसे वाले बने रहना हैं तो उन्हें अपना भुगतान डालर में ही लेना होगा। ऐसा ही नौ जून को सऊदी अरब और अमेरिका के बीच पूर्व में हुआ पेट्रो डालर समझौता सऊदी अरब के प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने रिन्यू नहीं किया। उन्होंने ऐसा तब किया है जब दुनिया के सात सबसे ताकतवर देश इटली में मिल रहे हैं। इसका भी पेट्रो डालर समझौते से बहुत कुछ जुड़ा हुआ है।
यह बात 1973 की है। इजरायल और खाड़ी देशों के बीच युद्ध शुरू हो गया। मिस्र और सीरिया ने मिलकर इजरायल पर हमला बोल दिया था। ईरान, यूएई सहित ज्यादातर खाड़ी के देशों की हमदर्दी फिलिस्तीन के साथ थी और सभी इजरायल के खिलाफ थे और सभी ने इजरायल के खिलाफ युद्ध में शामिल थे। इस युद्ध में इजरायल इतना मजबूत होकर उभरा कि उसने इन देशों के कई हिस्सों पर कब्जा कर लिया। मिस्र का पेनेन्सुला, गोलन की पहाड़ियां, जार्डन के कई हिस्सों पर उसका कब्जा हो गया। इजरायल के इतना मजबूत होकर खड़े होने के पीछे अमेरिका की फंडिंग थी। युद्ध में पैसे देकर अमेरिका उसे मजबूती दे रहा था। वह कह रहा था कि तुम हारना नहीं, तुम्हें जो सुविधाएं चाहिए मैं दूंगा। अमेरिका ने उस समय 18 हजार करोड़ डालर इजरायल की सहायता में दिये थे। इजरायल की सहायता करने से यह तेल उत्पादन करने वाले देश (ओपेक) अमेरिका से नाराज़ हो गये। ओपेक सऊदी के नेतृत्व में ऐसे देशों का समूह है जो तेल का उत्पादन करते हैं। नाराज होकर ओपेक देशों ने अमेरिका पर आयल इमबार्गो लगा दिया। इसके तहत उन्होंने तेल का उत्पादन घटा दिया। उत्पादन घट जाने से संपन्न देशों के पास तेल नहीं पहुंच पा रहा था। तेल नहीं पहुंचने से तेल की कीमतें बढ़ने लगीं। तेल कीमतें बढ़ने से महंगाई बढ़ने लगी। महंगाई के चलते इन विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाएं आत्मसमर्पण करने के करीब हो गईं। ज्यादातर संपन्न देशों में महंगाई दो से तीन परसेंट ही रहती है। इससे ज्यादा होने पर इन देशों के फेल होने का खतरा मंडराने लगता है और जनता सड़कों पर उतर आती है।
सऊदी ने ओपेक देशों को तेल पैदा करने से रोक लगाने का आदेश दिया। तेल पर रोक लगने से तेल की कीमतों में तीन सौ प्रतिशत का इजाफा हो गया। 60 में मिलने वाला तेल 180 डालर में मिलने लगा। इससे पूरी दुनिया में महंगाई बढ़ गई। सारे बड़े देश अमेरिका, जापान, इटली, जापान फ्रांस में हाय तौबा मच गई। इस स्थिति में अमेरिका ने इन सबको इकट्ठा किया और एक संगठन बनाया जिसका नाम था जी-7। इनका उद्देश्य सिर्फ महंगाई से लड़ना था। कैसे भी करके ओपेक देशों द्वारा बंद किए गए तेल उत्पादन को खुलवाना तथा उसके खिलाफ एक होना था।
जी-7 की बैठकों में यह याद किया जाता है कि कैसे ओपेक के देशों ने उन्हें गिराने की कोशिश की थी और कैसे वह एक होकर बच गए थे। जब-जब विकसित देश इसे याद करते हैं तब-तब सऊदी अरब का तनाव बढ़ जाता है। उसे लगता है कि यह लोग सऊदी अरब को मजा चखाने की फीलिंग के साथ यह बैठक करते हैं।
खाड़ी देशों और इजरायल के बीच युद्ध चल रहा था। सऊदी को डर था कि अमेरिका इजरायल को इतने हथियार दे देगा कि वह एक दिन सऊदी पर ही कब्जा कर लेगा। इसी बीच अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने लोगों के माध्यम से सऊदी अरब को कहलवाया कि क्यों वह युद्ध के चक्कर में पड़ा है। यदि वह अमेरिका की बात मान लेगा तो अमेरिका उसे गारंटी देता है कि इजरायल उस पर हमला नहीं करेगा। साथ ही उसके यहां डालर की बरसात कर देगा। सऊदी ने पूछा कि इसके लिए उसे क्या करना होगा। अमेरिका ने पूछा कि अभी तक तुम जो तेल बेचते हो, उसका भुगतान कैसे लेते हो? सऊदी ने बताया कि किसी से गोल्ड में, किसी से गुड्स में लेते हैं। यहां तो बार्टर सिस्टम चल रहा है। अमेरिका ने कहा कि यह व्यवस्था हटानी होगी। अमेरिका ने कहा कि ब्रेटनहुड शिखर सम्मेलन से हमने यह तय कर रखा है कि दुनिया भर के देश डालर में ही लेन-देन करेंगे। डालर को यूनिवर्सल करेंसी घोषित कर दिया गया है। डालर गोल्ड के बराबर है। तेल के लिए अब कोई देश तुम्हें भुगतान करे तो तुम उससे डालर में भुगतान मांगो। कोई भुगतान नहीं करेगा तो उससे पैसे हम दिलवाएंगे। इसके चलते सऊदी को एक तरफ तो सुरक्षा मिल गई। दूसरी तरफ पैसा भी। तब से लेकर आज तक यही एग्रीमेंट चला आ रहा है। इसे ही पेट्रो डालर एग्रीमेंट कहते हैं।
ओपेक के देश जो व्यापार करते हैं वह डालर में ही करते हैं। इस डालर में व्यापार के पीछे 1973 में सऊदी और अमेरिका के बीच हुआ यह समझौता है। इस संयुक्त समझौते में पेट्रोलियम को डालर में बेचने की बात कही गई थी। इससे सऊदी के पास खूब डालर इकट्ठा हो गया। इसके साथ ही सुरक्षा अमेरिका के हाथों में चले जाने से सऊदी भी निश्चिंत होकर तरक्की करने लगा और दुनिया की 10 सबसे महत्वपूर्ण अर्थव्यवस्थाओं में आ गया।
सऊदी के पास डालर ज्यादा इकट्ठा हो जाने पर अमेरिका ने उसे सुझाव दिया कि वह इस डालर को अमेरिका में लगा दे। अमेरिका ने कहा कि हम ट्रेज़री बिल्स निकालते हैं। वह इन ट्रेज़री बिल्स को खरीद कर अमेरिकी सरकार को अपना कर्जदार बना दे जिसका उसे ब्याज भी मिलता रहेगा। यहां यह जानना जरूरी है कि ट्रेज़री बिल्स के साथ ही सरकार की छवि जुड़ी होती है। यदि सरकार उसका भुगतान नहीं करती है तो माना जाता है कि सरकार फेल हो गई है। कोई सरकार फेल नहीं होना चाहती, इसलिए ट्रेज़री बिल्स की वैल्यू बहुत ज्यादा होती है। इसलिए देश दूसरे देशों के ट्रेज़री बिल्स में पैसा लगाते रहते हैं। उन्हें लगता है कि देश फेल नहीं होंगे और उनका पैसा सुरक्षित रहेगा और उनका पैसा बढ़ता रहेगा।
इस तरह से अमेरिका ने पहले तो तेल बिकवाकर सऊदी में डालर मंगवाए, फिर डालर अमेरिका में मंगवा लिये और सऊदी को पकड़ा दिया ट्रेज़री बिल। कहा जब चाहो तब पैसा हमसे ले लेना। तुम्हारे पैसे अमेरिका में सुरक्षित हैं। इस तरह से डालर वापस अमेरिका के पास पहुंच गया। हालांकि सऊदी को कभी भी इस चीज की कमी नहीं महसूस हुई कि अमेरिका उसके साथ कुछ ग़लत कर रहा है।
अब अमेरिका के साथ ही दुनिया के और देश भी तरक्की करने लगे। चीन दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बाजार बन चुका है। साथ ही दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भी। वहीं रूस कम आबादी में प्रति व्यक्ति आय के मामले में आगे बढ़ते हुए अमेरिका को टक्कर देने आ चुका है। वहीं रूस, चीन, दक्षिण अफ्रीका, भारत और ब्राजील ने मिलकर एक संगठन बनाया जिसका नाम ब्रिक्स रखा। इन लोगों ने सोचा कि यदि ऐसे ही अमेरिका के डालर की बादशाहत चलती रही तो एक दिन हमारी कोई इज्जत ही नहीं होगी। हर तरफ डालर ही डालर होगा।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इस समय दुनिया का 90 प्रतिशत ट्रांजेक्शन और ट्रेड डालर में ही होता है। दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होते हुए भी चीन को यदि खाड़ी देशों से तेल लेना होता है तो वह भुगतान डालर में ही करता है। इसलिए ब्रिक्स देशों ने निर्णय लिया कि दुनिया से डालर को हटाना है। इसका सिक्का खत्म करना है। डीडालराइजेशन करना है। अर्थात डालर को मार्केट से खत्म कर देना है। डालर मांगना ही बंद कर दो, साथ ही डालर में भुगतान करना बंद कर दो। इसकी जगह पर हम लोग अपनी मुद्रा में ही भुगतान करें। चीन ने सऊदी से कहा कि चीन की मुद्रा युआन में भुगतान कर उसे जो भी और जितना भी सामान और हथियार चाहिए चीन से खरीद सकता है। उसने बताया कि अमेरिका खुद ही चीन से सामान खरीदता है तो उसे किस बात की परेशानी है? अमेरिका फोन, इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स, गाड़ियां सहित अन्य सामान चीन में बनवा रहा है तो वह भी सीधे युआन में लेन-देन कर लें। इतना ही नहीं हथियार चाहिए तो अमेरिका से भी उन्नत किस्म के हथियार रूस बनाता है। कोरोना की पहली वैक्सीन भी उसी ने बनाकर दुनिया को दी। लाख मजाक बनाया गया लेकिन बाजार में रूस की वैक्सीन स्पूतनिक का एक भी फेलियर केस नहीं मिला है। रूस तकनीक में बहुत आगे है। उसे भी डालर नहीं चाहिए। तुम रूस के साथ उसकी मुद्रा रूबल में व्यापार करो। इसमें नहीं हो पाए तो रूस, भारत, ब्राजील आदि से मिलकर एक अलग ब्रिक्स करेंसी बना लेंगे। उसमें व्यापार कर लिया जाएगा। यह बात सऊदी को समझ में आ गई।
ब्रिक्स के देशों ने समझाया कि इसके लिए सबसे पहले डालर में ही भुगतान लेने के बंधन से खुद को मुक्त करना होगा। डालर में भुगतान आता है तो ठीक है। डालर लेने से रोका नहीं जा रहा है, उन्होंने केवल डालर में ही भुगतान लेने की बात बंद करने का सुझाव दिया। कहा गया कि डालर के अलावा युआन, रूबल, यूरो, पाउंड, रुपए जो भी मिले, उसमें भुगतान कर लो। उस देश के साथ अपना व्यक्तिगत व्यापार करो। अमेरिका का पिछलग्गू बनकर व्यापार मत करो। सऊदी के प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान को यह बात समझ में आ गई। इसलिए उसने पेट्रो डालर समझौता रद्द कर दिया।
यहां यह जानना जरूरी है कि प्रतिवर्ष साढ़े तीन ट्रिलियन डॉलर का खाड़ी देशों के साथ तेल का व्यापार होता है। भारत की जितनी जीडीपी है उतने का तो यह लोग तेल बेच लेते हैं। तेल के बराबर का डालर बाजार में घूमता रहता है। यदि डालर से ओपेक के देश हट गये और पेट्रो डालर समझौते से बाहर आ गये। इसकी जगह दुनिया की और करेंसी चलने लगी तो अमेरिका के डालर का चल रहा सिक्का बीते दिनों की बात हो जाएगी।