
प्रसंगवश
मैं जौनपुर जनपद के बदलापुर थाना अंतर्गत कठार गांव की निवासी हूं। 1989 में जब मैं इस गांव में बहू बनकर आई तब यहां पर होली का गजब ही आकर्षण हुआ करता था। लगभग डेढ़ माह लोग पूरी तरह से होली की मस्ती में ही रंगे रहते थे। यह उत्साह रेड़ गड़ने से लेकर होलिकोत्सव तक रहता था। रेड़ गड़ना मतलब मकर संक्रांति। इस दौरान किसी न किसी के यहां होली गीतों की गवनई होती रहती थी। पुरुषों के आयोजन अलग और महिलाओं के अलग। जो आयोजन करवाता, वही पान-बीडी, मीठा आदि की व्यवस्था करता और अबीर-गुलाल रखता। गाने आने वाले अबीर-गुलाल लगाकर एक दूसरे से गले मिलते। एक की ड्यूटी आने वालों को रंग में सराबोर करने की रहती थी। एक तरह से डेढ़ माह भरपूर मस्ती ही रहती थी लेकिन यह लगभग समाप्त हो चुकी है। लगभग 20 वर्षों से किसी-किसी वर्ष तो ऐसे आयोजन हुए ही नहीं, जबकि किसी वर्ष किसी एक ने ऐसा आयोजन करवाया। रोज आयोजन होने की वजह से लोगों को होली गीत याद रहते थे, लेकिन अब आयोजन कम होने होने या नहीं होने से लोगों को होली गीतों को याद करने में दिमाग लगाना पड़ता है।
दूसरी बात इस डेढ़ माह कुछ महिलाओं से पुरुष डरा करते थे। वह भी पूरी धमकी के साथ। इस दौरान मेरे ही परिवार के कुछ सदस्य खानदान की कुछ महिलाओं की वजह से रास्ता बदल कर आते-आते थे, क्योंकि जरा सी असावधानी होते ही रंग पड़ जाता था। गांव में ऐसी और भी उत्साही महिलाएं थीं। अब स्थिति बदल चुकी है। अब उन महिलाओं की उम्र ज्यादा हो चुकी है और वह भी गंभीर व्यक्तित्व के साथ जीती हैं। इसके लिए कुछ समय भी जिम्मेदार है जबकि नई पीढ़ी की बहुओं में होली को लेकर उत्साह की शून्यता है।
तीसरी बात होलिका दहन की। तब किसकी होलिका सबसे बड़ी थी, इसे लेकर भी प्रतिस्पर्धा थी। इसलिए लोग दूसरों के छप्पर, उपले, लकड़ी आदि भी मांग कर या चुरा कर होलिका में डाल देते थे। इसके चलते कई बार स्थितियां गंभीर बन जाती थी और मामला मारपीट की स्थिति तक चला जाता था। हालांकि अब ऐसा नहीं है। अब होलिका बढ़ाने को लेकर ऐसा उत्साह नहीं रहता। जबकि होलिका दहन के बाद गायन तो पूर्ववत जैसा चला आ रहा है।
होली का फाइनल तो होलिकोत्सव का दिन होता है। इस दिन सुबह के समय गांव के बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक गांव के पूरब स्थित दूसरे गांव बिठुआकला में पांडे पंडित जी के यहां इकट्ठा होते थे। यहां पर भांग का सर्बत सबको पिलाया जाता है। अब भी उन्हीं के दरवाजे पर होली गायन की शुरुआत होती है। 10-11 बजे तक यहां से लोग उठते हैं और अपने गांव आकर दरवाजे-दरवाजे फगुआ गाते हैं। यह परंपरा अभी भी बरकरार है। हालांकि अब वरिष्ठों की उतनी सहभागिता नहीं रहती। इस दिन शाम के समय कम से कम दो या तीन घरों पर फगुआ गायन होता था जिसमें से अब मात्र कोई एक कराता है। शाम के समय होली गवनई के साथ ही होली मिलन होता था जो अब भी बरकरार है लेकिन पुरानी रंगत में नहीं। महज औपचारिक।
कुसुमलता सिंह, सामाजिक कार्यकर्ता